मोदी की फसल बीमा योजना में किसान छोड़ो, बीमा कंपनियों ने हज़ारों करोड़ पीट दिए
आजकल किसानों (Farmers) को लेकर कई तरह की चर्चाएं आपको सुनने को मिलती होंगी. लिहाज़ा हमने आज मोदी सरकार की एक ऐसी योजना की बारे में आपको बताने का सोचा जिसका प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री जिक्र करते नहीं थकते. इसका नाम है ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ (PMFBY). हाल ही में जारी किए गए इकॉनोमिक सर्वे में भी इसे सरकार ने “माइल्स्टोन इनिशिएटिव” बताया है. सरकार का ये भी दावा है कि 90,000 करोड़ रुपए का लाभ किसानों को दिया जा चुका है. यहां तक की 70 लाख किसानों को लॉकडाउन के दौर में 8,741 करोड़ रुपए दिए गए. इस योजना की शुरुआत प्रधानमंत्री ने 18 फ़रवरी 2016 में किया था. अब इसको पांच साल हो चुके हैं. इन सारे ऐलानों को देखते हुए हमने सरकार की वेबसाइट में दी गई जानकारी को इक्कठा किया और इसकी पड़ताल की, आइए आपको बताते हैं कि इन दावों में कितनी सच्चाई है.
दावे और सरकारी आंकड़ों में बड़ा अंतर
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की वेबसाइट में 2019 तक के सारे आंकडे मौजूद है. और यह राज्यों के आधार पर बटीं हुईं हैं. 2016-17 के आंकडे के मुताबिक़ 583.6 लाख किसानों ने बीमा कराया और 567.2 लाख हेक्टेयर ज़मीन का बीमा हुआ. वहीं इसके अगले साल 2017-18 में भले ही किसानों की तादाद में बढ़ोतरी हुई लेकिन सिर्फ़ 508.3 लाख हेक्टेयर ज़मीन का ही बीमा हुआ. साल 2018-19 में इसमें थोड़ी बहुत बढ़ोतरी हुई मगर 522.9 लाख पर रुक गई और 2019-20 में अब तक सिर्फ़ ख़रीफ़ के आंकडे जारी किए हैं सरकार ने, जिसमें सिर्फ़ 335.7 लाख हेक्टेयर ज़मीन का बीमा हुआ है. हालांकि एक बहुत बड़ी चीज़ जो इन सालों में हुई. वो ये है कि सात राज्यों जिसमें बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, पंजाब और सिक्किम शामिल है और 2 केंद्र शासित प्रदेश जिसमें जम्मू-कश्मीर और पुद्दचेरी शामिल हैं, इन्होंने इस योजना से हाथ खींच लिए हैं. फ़िलहाल आंकडे में बहुत साफ़ नहीं नज़र आ रहा है, क्योंकि सरकार ने 2019 के ख़रीफ़ के बाद के आंकडे जारी ही नहीं किए हैं.
बिहार ऐसा पहला राज्य था जिसने साल 2018 में इस योजना से अपना हाथ खींचा था. तब बिहार में एनडीए की ही सरकार थी. उस वक़्त नीतीश कुमार ने दो कारण बताए थे. तब बिहार के कोऑपरेटिव विभाग के प्रमुख सचिव ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बिहार के किसानों को कोई ख़ास मदद नहीं पहुंचा रही है.’ उन्होंने आगे कहा था, “अगर 2016 ख़रीफ़ के आंकडे देखें तो, बिहार और केंद्र सरकार ने कुल मिलाकर 495 करोड़ रुपए का प्रीमियम दिया था लेकिन बिहार के किसानों को सिर्फ़ 221 करोड़ का लाभ मिला.” और एक बड़ा कारण बिहार सरकार के मुताबिक़ राज्य कोश इसकी स्कीम का भार था. बिहार सरकार ने अपनी खुद की योजना जारी की थी.
क्लेम में लगता है काफ़ी वक्त
दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में पढ़ाने वाले डॉ. मनीष कुमार बताते हैं कि फसल बीमा योजना की बहुत बड़ी दिक्कत है क्लेम सिस्टम. उनके मुताबिक़ अक्सर पैसा मिलने में 2-3 साल का वक्त लग जाता है. ये बात कृषि मंत्रालय द्वारा जारी किए गए 2019 ख़रीफ़ के आंकडों से भी साफ़ होता है. 20,805 करोड़ रुपए का क्लेम किसानों ने किया, जिसके एवज में सरकार ने नवम्बर 2020 तक जारी आंकडों के मुताबिक़, 17,197 करोड़ रुपए का ही भुगतान किया है. मतलब क़रीब 2 साल से भी ज़्यादा बीत जाने के बाद भी किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है.
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में भद्रा के किसान नेता मंगेज़ चौधरी बताते हैं कि पिछले 3 सालों में वो क़रीब 20-25 बार डीएम कार्यालय पर प्रदर्शन कर चुके हैं. मंगेज आगे कहते हैं, “हमारे ज़िले में कुल 5000 से भी ज़्यादा ऐसे किसान हैं, जिन्होंने फसल बीमा के क्लेम के लिए अप्लाई किया था, लेकिन महज़ 200-300 लोगों को अब तक फ़ायदा मिला है. जिनको मिला भी है वो 2 साल के बाद मिला है.”
घटती ज़मीन––बढ़ता प्रीमियम
आंकडों में एक और बात साफ़ हो जाती है कि जहां पहले साल में 567 लाख हेक्टेयर ज़मीन का बीमा हुआ था, वहीं किसानों ने 4,046 करोड़ और सरकार ने 21,769 करोड़ रुपए बीमा कम्पनियों को दिया था. लेकिन 2017 में 508 हेक्टेयर के लिए किसानों ने 4204 करोड़ और सरकार ने 24,651 करोड़ रुपए बीमा कम्पनियों को दिए थे. जो कि 2019 में महज़ 337 लाख हेक्टेयर ज़मीन के लिए किसानों ने 3010 करोड़ और सरकार 24,057 करोड़ रुपए बीमा कम्पनियों को दे चुकी है. सरकार और किसानों ने कुल मिलाकर 99,284 करोड़ रुपए बीमा कम्पनियों को दिए हैं पिछले पांच सालों में, और अब तक कुल 68,278 करोड़ रुपए का लाभ किसानों में मिला है. ये आंकडे चौंकाने वाले तो हैं ही साथ ही साथ ये भी बताते हैं कि पिछले पांच सालों में 31,546 करोड़ रुपए का फ़ायदा बीमा कम्पनियों को पहुंचा है.
प्राइवेट कम्पनियों को फ़ायदा
कृषि मंत्रालय की वेबसाइट में दी गई जानकारी के मुताबिक़ कुल 18 बीमा (insurance) कंपनियां हैं. इनमे सिर्फ़ 5 ऐसी कम्पनियां हैं जिसमें सरकार की कुछ हिस्सेदारी है. बाक़ी सारी कंपनियां निजी हैं. जेएनयू में अर्थशास्त्र पढ़ाने और कृषि क्षेत्र में पिछले 20 सालों से काम करने वाले प्रोफ़ेसर विकास रावल बताते हैं कि इस योजना के लागू होने से पहले एग्रीकल्चर कोर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया किसान बीमा स्कीम चलती थी. इस स्कीम के तहत किसी भी किसान को लोन लेने पर फसल बीमा करना अनिवार्य था. जिससे एक चीज़ सुनिश्चित होती थी कि फसल बीमा कराने वाला किसान ही होता था और बीमा की राशि 10-20 रुपए से ज़्यादा नहीं होती थी.
विकास आगे कहते हैं, “लेकिन प्रधानमंत्री फसल बीमा के आने से बड़ी तादाद में लोगों ने बीमा कराया और ऐसे किसान भी इसमें है जिन्होंने लोन नहीं लिया है. ये वैसे तो बहुत अच्छा सुनने में लग सकता है लेकिन इसका एक दूसरा पहलू है. ये लोग जो बीमा करवा रहे हैं यह किसान हैं भी या नहीं हमें नही पता.”
निजी कम्पनियां जांच के दायरे के बाहर
प्रोफ़ेसर विकास का आरोप है कि इसमें बहुत बड़ा घोटाला है. वो कहते हैं, “एक उदाहरण से आपको बताता हूं. एक प्राइवेट बीमा कम्पनी अपने एजेंट को 1000 पॉलिसी का टारगेट देती है और कहती है कि एक पॉलिसी पर एजेंट को 600 रुपए दिए जाएंगे. अब एजेंट अपनी जेब से 500 देता है कम्पनी को एक पॉलिसी रिपोर्ट करता है. उसे इसके बदले 600 रुपए कम्पनी देती है और एक पॉलिसी के लिए कम्पनी को 1000 रुपए सरकार देती है. फ़िलहाल ऐसे ही चल रही है ये योजना. आप किसी का भी आधार लिंक करवा सकते हो, इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि वो किसान है या नहीं. और ये जांच के दायरे से भी बाहर है, क्योंकि ये निजी बीमा कम्पनियां हैं. पहले ये सब कुछ कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (CAG) द्वारा जांच की जाती थी क्योंकि एग्रीकल्चर कोर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया इस स्कीम को चलाती थी.”
Source: The lallantop
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